Thursday, August 19, 2010

प्रेम है नहीं जाल कोई ये तो कच्ची डोर है ,
जिसका मैं एक छोर हूँ , उसका तू एक छोर है ,
प्रेम है स्वयमेव पूजा अर्चना आराधना है
वासना से मुक्त है जो प्रेम तो वह साधना है
स्वयं सदृश ईश के प्रेम निर आकर है ,
मात्र एक अनुभूति है फिर भी ये साकार है ,
नभ से ऊंचा गहरा सागर सम ,
ही होता है प्यार इसी लिए यह माना जाता ,
सृष्ठी का आधार ।

यह कविता मेरी 'सप्त स्वप्न ' का एक अंश है जो मुझे बहुत प्रिय है .....

आदित्य कुमार

Wednesday, August 18, 2010

तुम

तुम्ही आरती तुम ही पूजा ,
तुम्ही अर्चना तुम आराधन ,
तुम ही मेरा इष्ट देव हो ,
तुम ही धरती तुम्ही गगन
तुम ही जल हो तुम्ही वायु
तुम्ही प्राण हो तुम स्नायु
तुम ही मेरा तन मन धन हो
और तुम्ही मेरा जीवन हो ,
तुम ही वर्षा तुम ही तृष्णा
तुम ठंडक हो तुम्ही उष्णा,
तुम ही मेरा प्रेम सरोवर ,
और तुम्ही हो मेरी नईया
मुझे डुबो दो आज स्वयं में
बन कर मेरी तुम्ही खिंवैयाँ
मैं तुम में स्थिर तुम चंचल सी
तुम मेरे आंगन की तुलसी ,
तुम यमुना के तट की रेणु
तुम स्वर में कान्हा की वेणु
तुम्ही कठिन हो हो तुमे सरलता
तुम्ही ध्येय हो तुम्ही सफलता
तुम बिन हूँ मैं निपट अकेला
तुम ही मेरी जीवन बेला
तुम्ही सफ़र हो तुम हम ही साथी
मैं दीपक हूँ तुम हो बाती।

Tuesday, August 3, 2010

श्रधा सुमन

दिन के उजाले रातों के
वीराने लगने लगते हैं ,
जब खंजर तेरी यादों के
दिल में चुभने लगते हैं ।

जब हम मन ही मन घुट जाते हैं
सारे आंसू पी जाते हैं,
जब पैमाने खली हो कर ,
एक ओर हो जाते हैं ,
जब मधु शाला के दरवाजों में
भी सांकल चढ़ जाती है ,
तब धरती से सूरज की दूरी
थोड़ी बढ जाती है ।

रातों को तेरी यादों में
जगना मज़बूरी लगती है।
और दिवास्वप्नो की आहट,
आँखों पर भरी लगती है।

तब भी हम तरुणाई लेकर ,
बिन सोए अंगड़ाई लेकर ,
प्रतिदिन मधुशाला जाते है
और तुम्हारी यादों को हम
श्रधा सुमन चढाते हैं।