Wednesday, August 21, 2013

पीछे हट जाने का डर है।।

घोर तिमिर है,
कठिन डगर है,
आगे का कुछ नहीं सूझता,
पीछे हट जाने का डर है।

मन में इच्छाएं बलशाली
शोणित में भी वेग प्रबल है,
रोज लड़ रहा हूँ जीवनसे
टूट रहा अब क्यों संबल है।  

मैंने अपनी राह चुनी है
दुर्गम, कठिन कंटकों वाली ,
जो ऐसी मंजिल तक पहुंचे
जो लगे मुझे कुछ गौरवशाली।  

धूल धूसरित रेगिस्तानी हवा के छोंकें
देते धकेल , आगे बढ़ने से रोकें ,
सूखा कंठ, प्राण हैं अटके
कब पहुंचूंगा निकट भला पनघट के।  

आगे बढ़ना भी दुष्कर है
मन में मेरे अगर मगर है ,
आगे का कुछ नहीं सूझता
पीछे हट जाने का डर है।। 

किन्तु गीता में लिखा हुआ है
तू फल की चिंता मत करना ,
अपना कर्म किये जा राही
निर्णय तो मुझको है करना। 

सूरज भी निर्बाध गति से चलता है
निश्चित ही ये घोर तिमिर छटना है,
और साथ ही छट जाएगी घोर निराशा
लक्ष्य हांसिल करने की सीढ़ी है आशा।  

मन में आशा
और अधरों की प्यास,                                        
इतना निश्चित है
ले जाएगी मुझे लक्ष्य के पास।  

घोर तिमिर है,
कठिन डगर है,
पीछे मुड़कर नहीं देखना
पीछे हट जाने का डर है।। 

Poet : Aditya Kumar 

Tuesday, August 20, 2013

burn me in the fire of suffering, at that level,

  burn me in the fire of suffering, at that level,
           where the ego dies,
              Pride Cries,
         no malice and pain,
        should not be remain. 


         almighty! Cut all bond of fascination,
          should be dear one all the creation,
                  remnants of jealousy,
                 Should not be remain.

           Do the musings, inspite of worries ,
               human value should rise,
                     A bad phase,
               Should not be remain. 

        Poet : Aditya Kumar 

और नहीं कुछ शेष रहे।

मुझे जलाओ पीडानल में, उस सीमा तक,
जिस पर अहंकार मरता है,
अभिमान आहें भरता है,
बाकि न कुछ द्वेष रहे,
और नहीं कुछ शेष रहे।

हे देव ! काट दो बंधन सारे ,
एक नहीं सब होवें प्यारे ,
न इर्ष्या का अवशेष रहे,
और नहीं कुछ शेष रहे।
चिंता छोड़ करें सब चिंतन
सुखमय हो जाए हर जीवन
उन्नति देश करे
और नहीं कुछ शेष रहे।

 शब्द्कार : आदित्य  कुमार 

Thursday, August 15, 2013

कभी कभी मुझको लगता है जिन्दा जन आधार नहीं है

बार बार हमसे क्यों आकर उलझ उलझ कर
उलझ चुके कितने ही मुद्दे सुलझ सुलझ कर
ऐसे मुद्दे सुलझाने में वक्त करें क्यों जाया
अब तक सुलझा कर, बतला दो क्या पाया
उनको अपना स्वागत सत्कार समझ ना आया
किश्तवाड़ में हमें ईद त्यौहार समझ न आया
इतना सब कुछ हो जाने पर भारत चाहेगा मेल ?
शायद भारत को डर हो, कहीं रुक न जाये खेल। 
रत्ती का व्यापार नहीं है, चिंदी भर आकार नहीं है
भारत के उपकारों का उनको कुछ आभार नहीं है 
कभी कभी मुझको लगता है, भारत में सरकार नहीं है
कभी कभी मुझको लगता है जिन्दा जन आधार नहीं है


मै परिचित हूँ परिस्थिति क्या होती है युद्धों में
पर क्या समझौता उचित लग रहा है इन मुद्दों में
जिनके शीश कटे हैं उनकी माताओं से जानो
बेटा, पति, भाई खोने के दुःख को तो पहचानो
चुप्पी से भारत की सेना का स्वाभिमान गिरता है
और नहीं कुछ सैनिक में बस देश प्रेम मरता है
देश प्रेम मर जाने से शत्रु साहस बढ़ जाता है
छोटे से छोटा शत्रु भी भारत पर चढ़ आता है
पर क्या समझेंगे वो जो अब तक सत्ताधारी है
फिर से सत्ता हांसिल करने की केवल तैयारी है
कभी कभी मुझको लगता है, भारत में सरकार नहीं है
कभी कभी मुझको लगता है जिन्दा जन आधार नहीं है

कल फिर से भारत में हम आजादी पर्व मनायेगे
आजादी की खुशियों में फिर झूमे नाचेंगे गायेंगे
बलिदानी वीरों को केवल पुष्पांजलि दे देने से
थोडा झंडा झुका के उनको श्रधांजलि दे देने से
भारत में पैदा होने का धर्म नहीं पूरा होता है
भारत में पैदा होने का कर्म नहीं पूरा होता है
अपना केवल दाइत्व नहीं होता पोषण परिवारों का
रण लड़ना पड़ता है सबको भारत के अधिकारों का
बलिदानी वीरों का कहीं बलिदान न खाली जाये
कोटि कोटि सन्तति माता की दूध लजा न जाये
कभी कभी मुझको लगता है, भारत में सरकार नहीं है
कभी कभी मुझको लगता है जिन्दा जन आधार नहीं है

शब्दकार : आदित्य कुमार

Sunday, August 4, 2013

मै हूँ राष्ट्रपुरुष भारत, मै कवि के मुख से बोल रहा हूँ

पर्वत राज हिमालय जिसका मस्तक है
जिसके आगे बड़े बड़े नतमस्तक है
सिन्धु नदी की तट रेखा पर बसा हुआ
गंगा की पावन धारा से सिंचित है
जिसको तुम सोने की चिड़िया कहते थे
छोटे बड़े जहाँ आदर से रहते थे 
जहाँ सभी धर्मो को सम्मान मिला
जहाँ कभी न श्याम श्वेत का भेद  हुआ
जिसको राम लला की धरती कहते है
गंगा यमुना सरयू जिस पर बहते है
जिस धरती पर श्री कृष्णा ने जन्म लिया
जहाँ प्रभु ने गीता जैसा ज्ञान दिया
जहाँ निरंतर वैदिक मन्त्रों का उच्चारण होता था
जहाँ सदा से हवन यज्ञ वर्षा कर कारण होता था
जिसके चारो धाम दुनिया भर का आकर्षण हो
जिस धरती पर बारह ज्योतिर्लिंगों के दर्शन हो
जिसके ग्रंथो में सारा विज्ञानं था
जिसको नहीं तनिक इस पर अभिमान था
जिसको आर्यावर्त का नाम मिला था जी
विश्वगुरु का भी का सम्मान मिला था जी
किन्तु दशकों गुजर गये मैं मौन हूँ
क्या अब भी परिचय दूँ के मै कौन हूँ
मै अतीत को वर्तमान से समय तुला पर तोल रहा हूँ
मै हूँ राष्ट्रपुरुष भारत, मै कवि के मुख से बोल रहा हूँ


मेरी गरिमा मेरा गौरव तक  घायल है
रक्षक के हाथों में चूंडी पैरों में पायल है
मेरी हर बेटी झांसी की रानी थी
त्याग तपस्या की दुनिया दीवानी थी
अब लगता धरती वीरों से खाली है
मेरी नव सन्तति ही लगती जाली है 
संसद लगती है मंडी नक्कालो की
नेताओं की जाती है घड़ियालो की
जो जनता को संप्रदाय में बाँट रहे है
मुझको छेत्र वाद के नाते काट रहे है
मेरे कंकर शंकर गंगाजल बिंदु है
मानव नहीं पशु पक्षी तक हिन्दू है
हिंदी मेरे जन जन की निज भाषा है
संस्कृति को जीवित रखने की आशा है
मेरी जनता वैदिकता की अनुयायी थी
धर्म सनातन ने दुनिया अपनाई थी
हिन्दू संस्कृति सब धर्मो का मूल है
मेरी सभ्यता ही सबके अनुकूल है
मेरे ही कारण सब आज सुरक्षित है
वैदिक धरती पर मुस्लिम आरक्षित है
मेरा केवल तुमसे इतना अनुरोध है
हिन्दू विरोध केवल एक आत्म विरोध है

मै अतीत को वर्तमान से समय तुला पर तोल रहा हूँ
मै हूँ राष्ट्रपुरुष भारत, मै कवि के मुख से बोल रहा हूँ



मेरे सिंघासन पर नेता या अभिनेता है
मानवता के मूल्यों का विक्रेता है
जिसको मेरी भाषा तक न आती है
पूरे का पूरा शासन अपराधी है
मेरी सीमाओं में शत्रु घुसते है
सच कहता हूँ दिल में कांटे चुभते है
संविधान क्या राजनीति की दासी है
मेरी आँखे न्याय की अभिलाषी है 
ये ना समझो मैंने कुछ न देखा है
मेरे पास हर गलती का लेखा है
तुम प्रतिपल अपराध करोगे
क्या सोचा है बच  जाओगे
गंगा नहा कर, दर पर आकर
देवालय में शीश नवाकर बच जाओगे
माफ़ हो गई सारी गलती, भूले कल की
भूल गए केदार नाथ में, महाविनाश की झलकी
मत भूलो मै अन्नदाता दाता हूँ
मत भूलो मै ही विधाता हूँ
मेरे सच्चे पुत्रों ने शीश चढाया है
हिन्दू कुश का ध्वज न झुकने पाया है
किसका साहस मेरे ध्वज को मेरी धरती पर फाड़ दिया
तुम सुन ना सके, मै चीन्खा था , सीने में चाक़ू गाड दिया

मै अतीत को वर्तमान से समय तुला पर तोल रहा हूँ
मै हूँ राष्ट्रपुरुष भारत, मै कवि के मुख से बोल रहा हूँ



मेरी नजरों में सारे अपराधी है
कोई एक नहीं सब के सब दागी है
रिश्वत लेना कोरी भ्रष्टाचारी है
रिश्वत देना भी मुझसे गद्दारी है
हर दिन लुटता चीर यहाँ अबलाओ का
लुटता है योवन जबरन बालाओं का
और सदा बालाएं भी निष्पाप नहीं
होती है घटनाये अपने आप नहीं
अपनी ही गलती विनाश का कारण बन जाती है
भारत के लिए कलंकित उदाहरण बन जाती है
राजनीति का रथ समता पर चलता है
सूरज केवल पूरब से ही निकलता है
कैसे मै विश्वास करूँ केवल सत्ता की गलती है
गलती तो जनमत की है, पांच बरस तक फलती है
लोकतंत्र में राजनीती जनमत की जिम्मेदारी है
अपना नायक चुनने की जनता खुद ही अधिकारी है 
भ्रष्टाचार की अग्नि को गर जनता हवा नहीं देगी
तो खानों पर्वत नदियों को  कुर्सी पचा नहीं लेगी
जनता और सत्ता में भी फिर समता हो जाएगी
जनता सत्ता से जवाब की अधिकारि हो जाएगी

मै अतीत को वर्तमान से समय तुला पर तोल रहा हूँ

मै हूँ राष्ट्रपुरुष भारत, मै कवि के मुख से बोल रहा हूँ 

Friday, August 2, 2013

दुनिया में तुम सुन्दरतम हो

मेरे मन का तुम आकर्षण हो
इस ह्रदय का तुम स्पंदन हो
तुम कुमकुम हो तुम चन्दन हो
तुम ताजमहल से सुन्दर हो

बस तुम ही मेरी प्रियतम हो
दुनिया में तुम सुन्दरतम हो

तुम ही हो मेरा प्रेम राग
तुम ही हो मेरी प्रेम आग
मै भ्रमर बना तुम हो पराग
तुम मन मंदिर का हो चिराग

बस तुम ही मेरी प्रियतम हो
दुनिया में तुम सुन्दरतम हो

तुम ध्येय मेरे जीवन का हो
तुम ध्यान मेरे प्रतिपल का हो
तुम हिरणों की चंचलता हो
तुम्हे पाना एक सफलता हो


बस तुम ही मेरी प्रियतम हो
दुनिया में तुम सुन्दरतम हो

मै वैरागी , तुम माला हो
मै प्यासा , तुम मधुशाला हो
प्रेम क्षुधा छलकाने वाली
तुम यौवन की हाला हो

बस तुम ही मेरी प्रियतम हो
दुनिया में तुम सुन्दरतम हो

तेरे नैन नक्श सब तीखे है
तेरे आगे बाकि सब फीके है
तेरे आगे पीछे ड़ोल रहे
तुझे देख देख कर जीते है

बस तुम ही मेरी प्रियतम हो
दुनिया में तुम सुन्दरतम हो

तुम हो सरिता का कल कछार
तुम पहली बारिश की फुहार
तेरी नयन रेख एक तीव्र बाण
हो जाती है मेरे आर पार

बस तुम ही मेरी प्रियतम हो
दुनिया में तुम सुन्दरतम हो

शब्दकार : आदित्य कुमार