Thursday, August 15, 2013

कभी कभी मुझको लगता है जिन्दा जन आधार नहीं है

बार बार हमसे क्यों आकर उलझ उलझ कर
उलझ चुके कितने ही मुद्दे सुलझ सुलझ कर
ऐसे मुद्दे सुलझाने में वक्त करें क्यों जाया
अब तक सुलझा कर, बतला दो क्या पाया
उनको अपना स्वागत सत्कार समझ ना आया
किश्तवाड़ में हमें ईद त्यौहार समझ न आया
इतना सब कुछ हो जाने पर भारत चाहेगा मेल ?
शायद भारत को डर हो, कहीं रुक न जाये खेल। 
रत्ती का व्यापार नहीं है, चिंदी भर आकार नहीं है
भारत के उपकारों का उनको कुछ आभार नहीं है 
कभी कभी मुझको लगता है, भारत में सरकार नहीं है
कभी कभी मुझको लगता है जिन्दा जन आधार नहीं है


मै परिचित हूँ परिस्थिति क्या होती है युद्धों में
पर क्या समझौता उचित लग रहा है इन मुद्दों में
जिनके शीश कटे हैं उनकी माताओं से जानो
बेटा, पति, भाई खोने के दुःख को तो पहचानो
चुप्पी से भारत की सेना का स्वाभिमान गिरता है
और नहीं कुछ सैनिक में बस देश प्रेम मरता है
देश प्रेम मर जाने से शत्रु साहस बढ़ जाता है
छोटे से छोटा शत्रु भी भारत पर चढ़ आता है
पर क्या समझेंगे वो जो अब तक सत्ताधारी है
फिर से सत्ता हांसिल करने की केवल तैयारी है
कभी कभी मुझको लगता है, भारत में सरकार नहीं है
कभी कभी मुझको लगता है जिन्दा जन आधार नहीं है

कल फिर से भारत में हम आजादी पर्व मनायेगे
आजादी की खुशियों में फिर झूमे नाचेंगे गायेंगे
बलिदानी वीरों को केवल पुष्पांजलि दे देने से
थोडा झंडा झुका के उनको श्रधांजलि दे देने से
भारत में पैदा होने का धर्म नहीं पूरा होता है
भारत में पैदा होने का कर्म नहीं पूरा होता है
अपना केवल दाइत्व नहीं होता पोषण परिवारों का
रण लड़ना पड़ता है सबको भारत के अधिकारों का
बलिदानी वीरों का कहीं बलिदान न खाली जाये
कोटि कोटि सन्तति माता की दूध लजा न जाये
कभी कभी मुझको लगता है, भारत में सरकार नहीं है
कभी कभी मुझको लगता है जिन्दा जन आधार नहीं है

शब्दकार : आदित्य कुमार

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